पर्याप्तता नहीं सन्तुष्टा प्राप्त करें

 




एक मध्यवर्गीय परिवार में पैदा होने की वजह से मुझे यह लगता था कि बेशुमार पैसा और पद बेहद ज़रूरी है क्योंकि इनसे हर ख्वाहिश पूरी की जा सकती है। पैसे और पद से ही हर परेशानी से निजात मुमकिन है। 

इसलिए इन्हें पाने के लिए मैं मुसलसल कोशिश करता रहता था। 


लेकिन जैसे-जैसे मैं सफल लोगों से मिलता गया, मुझे एहसास हुआ कि वे भी मुझसे अलग नहीं थे। 


प्रचुर पैसे और बेहतरीन ओहदे पाने के बावजूद भी तकरीबन सभी ज़्यादा से ज़्यादा पाने की होड़ में लगे थे। 

पैसा और पद ही उनकी परेशानी की वजह बन रहे थे! 


मैंने महसूस किया कि अमूमन कामयाब लोग बीमार है। वे अपनी असीम हवस के बोझ से हरदम थके-थके रहते है। 

बेशुमार होने के बावजूद भी बेहद असंतुष्ट रहते है।


इसीलिए अब मै पैसे, पद और प्रतिष्ठा से प्रभावित नहीं होता। 


मैं अब ब्रांडेड कपड़ों, मोबाइल फोन या अन्य ब्रांडेड वस्तुओं के आधार पर लोगों का मूल्यांकन नहीं करता हूँ। 


मेरे मुताबिक़ व्यक्ति अपने विचारों, अपने व्यवहार द्धारा ही पहचाना जा सकता है, ब्रांडेड वस्तुओं से नहीं। 


अब सवाल यह उठाया जाता है कि पैसा और ख्वाहिशें कितनी ज़रूरी है और इनकी कितनी मात्रा "पर्याप्त" है। 


मैं यह मानता हूँ कि यदि हम "पर्याप्तता" को प्राप्त करने की कोशिश करेंगे तो हमारे हाथ सिर्फ नाकामयाबी ही लगेगी। क्योंकि जब "पर्याप्तता" प्राप्त हो जाती है तो वह कम लगने लगती है। 


बेहतर होगा कि हम "पर्याप्तता" की बजाय "सन्तुष्टा" को ही तवज्जो दे। 


अगर साधुओं, बौद्ध भिक्षुओं, जैन मुनियों की बात करें तो इनकी नज़र में सभी ख्वाहिशों और पैसों का खात्मा करना ही उत्तम है क्योंकि यही सभी दुखों के कारण हैं। 


पर मेरा मत है कि समाज में रहते हुए ख्वाहिशों को मुकम्मल तौर से ख़त्म नहीं किया जा सकता। पर हां, उन्हें कम ज़रूर किया जा सकता है। 


इन चुनिंदा वाजिब ख्वाहिशों को हासिल करने के लिए कुछ साधनों की उपलब्धता भी ज़रूरी है। 


पर अफ़सोस कि मौजूदा दौर में सुकून और संतुष्टि को नज़र-अंदाज़ कर घमंड, दिखावे को अहमियत दी जा रही हैं।‌ 


टांगों को ढकने के लिए हमें नार्मल जींस या पैंट नहीं ब्लकि "रिप्ड जींस" या महंगी कटी-फटी जींस चाहिए! 


हम शायद यह भूल गए हैं कि जब इच्छाएं बे-लगाम हो जाती है तब इंसान अपना भला बुरा सोचने में ना-क़ाबिल हो जाता है, उसका ज़मीर सदा के लिए मर जाता है। 




~ संजय गार्गीश ~ 


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