मेरी सत्य की ख़ोज १

 


कुछ अध्यात्मिक दोस्तों, स्टूडेंट्स ने काफ़ी समय पहले फ़रमाइश की थी कि सत्य की जुस्तुजू के दौरान हुए अपने तजुर्बों को शेयर करूँ। 


लेकिन अपनी जीवन संगिनी के बेवक़्त इंतिक़ाल की वज़ह से मैं उस वक़्त शेयर नहीं कर पाया। 

अब मैं थोड़ा संभला हूँ, सो आप सभी के साथ अपने अनुभव साझा कर रहा हूँ। 


मुद्दा लंबा और गहरा है, इसलिए मैं दो पोस्टें लिखूँगा। 


"ज़िंदगी के मायने क्या है? "क्या खाना, पीना, सोना, सम्भोग करना ही जीवन का मक़सद है? ऐसे कई सवालों का सिलसिला मेरे ज़हन में उस वक़्त शुरू हुआ जब मैं काॅलेज में तालीम हासिल कर रहा था। 


दोस्तों, इन सवालों के जवाबों की तलाश में या फिर यूँ कहें कि सत्य की ख़ोज में मैं दर-ब-दर भटका। 

सभी मज़हबों के धर्म गुरुओं, साधकों से मुलाक़ात की। धर्म स्थलों पर गया, तस्सली-बख्श जवाब मयस्सर ना हुए। 


पंजाब में एक नामी-गिरामी स्वामी एक नामचीन डेरे की अध्यक्षता कर रहे थे। 

हज़ारों की तादाद में लोग उनके प्रवचन सुनने आते थे। 


एक बार मैं भी उनके प्रवचन सुनने गया और प्रवचन के पश्चात उनसे कुछ समय मांगा। 

उन्होंने कुछ देर मेरी ओर देखा और अगले दिन सुबह ७ बजे आने को कहा। 


अगले दिन ठीक ७ बजे मैं उनके पास पहुंचा, प्रणाम किया और पूछा, "स्वामी जी, सत्य क्या है? जीवन का असल उद्देश्य क्या है?" 


"बेटा, मेरे हिसाब से "नॉर्मल" जिंदगी जीना - पढ़ाई लिखाई करके नौकरी या धंधा करना, शादी करना और वंश को आगे बढ़ाना - ही जिंदगी का उद्देश्य है। मैं भी गृहस्थी हूँ, इसी डेरे में अपनी पत्नी, बच्चों और पोतों के साथ रहता हूँ। 


"लेकिन स्वामी जी, "नॉर्मल" की परिभाषा कौन तय करता है? यह भी तो हो सकता है कि एक व्यक्ति के लिए "नाॅर्मल" दूसरे के लिए "अब नॉर्मल" हो। मसलन एक जवान एथलीट के लिए मिठाई का डिब्बा खाना नाॅर्मल है जबकि एक शुगर पेशेंट के लिए अब नाॅर्मल। 


"बेटा, नाॅर्मल की परिभाषा समाज तय करता है। हमें उसी के मुताबिक़ जीवन जीना चाहिए। स्वामी जी ने पुर-ज़ोर आवाज़ में कहा 


"क्या संत, साधक भी समाज का अनुसरण करते है, स्वामी जी! मैं तो समझा था कि साधक संसार से परे होते है।" 


"लेकिन शास्त्र भी तो गृहस्थ जीवन का अनुमोदन करते है। मैं गृहस्थी हूँ और शास्त्रों के अनुसार जीवन जी रहा हूँ।" स्वामी जी ने मेरी तरफ़ देखते हुए कहा 


"स्वामी जी आपकी उम्र क्या है?" 


"सत्तर वर्ष। लेकिन लगता नहीं हूँ। स्वामी जी ने कुछ इतराते हुए कहा 


"शास्त्रों के मुताबिक़ गृहस्थ जीवन का अंतराल सिर्फ पच्चीस साल है, २५ साल की उम्र से लेकर ५० साल तक, उसके पश्चात तो वानप्रस्थ की अवस्था होती है। स्वामी जी आप तो सत्तर साल की उम्र में भी गृहस्थ में अटके हुए हो।" 


स्वामी जी ने इधर उधर देखा, कोई बहाना बना कर वहाँ से चले गए। 


दोस्तों मेरे मुताबिक़ सत्य क्या है, इस बारे में चर्चा अगली पोस्ट में करूँगा। 



~ संजय गार्गीश ~ 

Comments

Popular posts from this blog

Three S Formula For A Happy Life.

Silent Lovers

True, Brave Sons Of The Soil