क्या संसार छोड़ना सही है?
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"सर, जो लोग संसार को छोड़कर, अपने परिवार से विमुख हो कर संयास लेते हैं, क्या यह सही है?" एक महिला जिज्ञासु ने मुझसे पूछा
"मेरी समझ में इस संसार में सिर्फ तीन ही क़िस्म के लोग होते हैं :
(क) संसार को पकड़ने वाले।
(ख) बिना वैराग्य संसार से भागने वाले।
(ग) सोच समझकर संसार को छोड़ने वाले।
जो लोग संसार को पकड़ लेते हैं, वे बेहद नादान होते हैं। उन्हें इस बात का भी इल्म नहीं होता कि उनके सभी दुखों का एक ही कारण है - उनकी सांसारिक वस्तुओं, रिश्तों में आसक्ति होना।
जो सांसारिक वस्तु या रिश्ता शुरुआत में कुछ खुशी का एहसास देता है वही आख़िरकार बेशुमार दुखों-तकलीफ़ों को भी पैदा करता है।
कुछ लोग बिना किसी अनासक्ति के - अक्सर अपनी ज़िम्मेदारियों से भाग कर, अलग से अपने आलीशान डेरे बना लेते हैं।
पर यक़ीन मानिये, संसार उनके ज़हन में हमेशा रहता है।
ऐसे ही फ़रेबी अवाम को बेवकूफ़ बनाकर महल नुमा डेरों में अय्याशीयाॅं करते हैं।
बहुत ही कम लोग होते हैं जिन्हें यह इल्म हो जाता है कि सांसारिक रिश्तों, वस्तुओं से मिलने वाला सुख क्षणिक है, फ़रेब है।
ऐसे लोगों को संसार छोड़ना नहीं पड़ता, संसार इनसे स्वत: ही छूट जाता है।
सिर्फ श्री हरि कृपा और मनन से ही यह एहसास हो सकता है कि संसार में सुख कम हैं लेकिन दुख, धोखे़ और परेशानियाँ ज़्यादा है।
जैसे आम जब पक जाता है तो वह ख़ुद-ब-ख़ुद टहनी से जुदा हो जाता है, ठीक वैसे ही कुछ खुशकिस्मत लोगों से संसार अपने आप ही छूट जाता है।
इसलिए अनासक्त व्यक्ति संसार में रहे या जंगलों में, उसके ज़हन में सिर्फ परमात्मा का ही वास होता है।
ऐसा अनासक्त व्यक्ति यदि संसार या परिवार का त्याग करता है, तो उचित है।
चैतन्य महाप्रभु जी ने परमात्मा के लिए अपनी पत्नी, परिवार को छोड़ा।
स्वामी रामतीर्थ जी का जन्म 22 अक्टूबर, 1873 को जिला गुजरांवाला (जो इस समय पाकिस्तान में है) में ब्राह्मण परिवार में हुआ।
उन्होंने फॉरमैन क्रिश्चियन कॉलेज, लाहौर से इंटरमीडिएट की। इसी कॉलेज से बी.ए. और एम.ए. की परीक्षाएं पास की। एम.ए. (गणित) में प्रांत में प्रथम आए।
इसी काॅलेज में वह प्रोफेसर रहे। लेकिन सन् 1900 में - संसार को करीब से देखकर, अपनी पत्नी और बच्चों का त्याग किया और अपने सबसे बड़े धर्म यानि भगवान की शरणागति हेतु हिमालय के लिए प्रस्थान किया।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा है :
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
(संपूर्ण धर्मों को यानी संपूर्ण कर्तव्य-कर्मों को त्यागकर तुम केवल सर्वशक्तिमान, सर्वाधार भगवान की ही शरण लो। यही सबसे बड़ा धर्म है)
संजय गार्गीश
सदस्य, चिन्मय मिशन,
चंडीगढ़ प्रदेश।
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