मंज़िल ए इश्क़

 मंज़िल ए इश्क़ का बहुत 

पहले मिल जाना था 

सिर्फ अपनी हस्ती को ही 

तो हमें मिटाना था। 


मेरा अक्स आईने में कोई

मायने नहीं रखता 

मेरे अक्स को जो देखे बस

उसी को जानना था। 


राहें आसॉं होती मयस्सर 

होती हर शय

बदले मौसमों में हमें भी 

बदल जाना था। 


ऐ नादान, लबों पर तबस्सुम 

को सजाना था 

फिर उन्हें अपने ग़म-ओ-अलम 

सुनाना था। 


अक्स : परछाई 

मयस्सर : हासिल होना 

शय : वस्तु 

तबस्सुम : मुस्कान

ग़म-ओ-अलम : दुःख और दर्द 


~ संजय गार्गीश ~

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