शायर
कुछ हक़ीक़त थी कुछ अफ़साना था,
कुछ अपना था कुछ बेगाना था,
सब कुछ ही मगर मुझे सुनाना था।
सोतों को जगाना था,
रोतों को बहलाना था,
बहुतों को ढांढस बंधाना था।
अश्कों को अपने अपनाता हूँ,
लफ़्ज़ों से गमों को सजाता हूँ,
नग्में बना उन्हें गाता हूँ।
सुख-दुख खुद से ही मनाता हूँ,
कहाँ से कहाँ पहुँच जाता हूँ,
मैं शायर कहलाता हूँ।
~ संजय गार्गीश ~
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