कुछ अशआर...

 दिल से मेरे निकल जाए अगर यह दहर, 

पूरा हो जाए सफ़र मेरा मैं जाऊँगा ठहर। 


ज़हन में है बैठा तेरे जिसे ढ़ूॅंढता इधर उधर, 

सागर है वो ख़ामोश सा जिसकी है तू लहर। 


सोचा है जब जब इस जहाँ के मुतअल्लिक, 

हो जाता हूँ तब तब मै शर्मसार सर-ब-सर। 


ना बस में है जीवन ना बस में है मरण, 

समझे है ख़ुदा खुद को इंसान हर पहर। 


जिंदगी सिर्फ़ फ़रेब है संजय, यकीन कर, 

होती है जब शाम, किधर जाती है सहर? 


दहर : दुनिया, मुतअल्लिक : बारे में, सर-ब-सर : पूरी तरह से 


~ संजय गार्गीश ~

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