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Showing posts from August, 2024

कुछ अशआर...

 दिल से मेरे निकल जाए अगर यह दहर,  पूरा हो जाए सफ़र मेरा मैं जाऊँगा ठहर।  ज़हन में है बैठा तेरे जिसे ढ़ूॅंढता इधर उधर,  सागर है वो ख़ामोश सा जिसकी है तू लहर।  सोचा है जब जब इस जहाँ के मुतअल्लिक,  हो जाता हूँ तब तब मै शर्मसार सर-ब-सर।  ना बस में है जीवन ना बस में है मरण,  समझे है ख़ुदा खुद को इंसान हर पहर।  जिंदगी सिर्फ़ फ़रेब है संजय, यकीन कर,  होती है जब शाम, किधर जाती है सहर?  दहर : दुनिया, मुतअल्लिक : बारे में, सर-ब-सर : पूरी तरह से  ~ संजय गार्गीश ~

ज़िंदगी नाम है चलते ही रहने का

  ज़हन में ज़र्रे ज़र्रे के यूॅं उतरना चाहता हूँ।  हवाओं में ख़ुशबू की तरह मैं महकना चाहता हूँ।  मिलने की ख़ुशी हो ना खोने का कोई ग़म।  इस कदर जहाँ से मरासिम मैं रखना चाहता हूँ।  दौलतमंद हो कर रहना दुनिया में अच्छा है।  ग़ैरतमंद हो कर मगर मैं जीना चाहता हूँ।  थक गया हूँ चलते चलते अब थमना चाहता हूँ।  भर लो बाॅंहों में मुझे मैं पिघलना चाहता हूँ।  ज़िंदगी नाम है चलते ही  रहने का।  सफ़र यह वापसी का है  मैं कहना चाहता हूँ।  मरासिम : संबंध, ग़ैरतमंद : स्वाभिमानी ~ संजय गार्गीश ~