आज-कल के रिश्तों का सच

माना कि हमारे दरमियाँ अब वो बात नहीं, 

वो मरासिम नहीं, वो जज़्बात नहीं।


पर हमें ये सब कुछ छिपाना है, 

ज़माने को कुछ और ही दिखाना है।


चलो हम हाथों को बढ़ाते हैं, 

ना चाह कर भी गले लगाते हैं।


कुछ दस्तूर दुनियाँ के हैं, 

उन्हें निभाते हैं।


मरासिम : संबंध


~ संजय गार्गीश ~

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