एक मुश्त-ए-ख़ाक नहीं है अफ़साना मेरा
एक मुश्त-ए-ख़ाक नहीं है अफ़साना मेरा,
मै रुह हूँ नामुमकिन है मिट जाना मेरा।
हर ज़र्रे में वो मौजूद, हर ज़ेहन में वो मौजूद,
नहीं होता अब इबादत-गाह जाना मेरा।
ना कोई अब गैर है ना किसी से कोई वैर नहीं,
सारी धरती बनी है आशियाना मेरा।
सदियों से बहता नूर हूँ, उससे फिर भी दूर हूँ,
उसी में समाना है, वही है ठिकाना मेरा।
मुश्त-ए-ख़ाक : मुट्ठी भर मिट्टी, इबादत-गाह : पूजा करने की जगह,
~ संजय गार्गीश ~
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