जिम्मेदारियों और मोह में फ़र्क़
कुछ वक़्त पहले मुझे पार्क में एक उम्रदराज जानकार मिले जो अपने पोते और पोती के साथ शौक़ से आइसक्रीम का लुत्फ़ उठा रहे थे। बातचीत के दौरान उन्होंने कहा, "शर्मा जी, हमें सांसारिक जिम्मेदारियों से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती। अध्यात्म के लिए वक़्त नहीं निकाल पाते। अपने कर्मों को छोड़कर हम अध्यात्म के पथ पर नहीं चल सकते। कोई रास्ता बताओ।" "अपनी सांसारिक जिम्मेदारियों से पिंड छुड़ा कर आश्रमों, वनों में वास करना कायरता है। हमारे वेद, शास्त्र भी इसे इजाज़त नहीं देते। लेकिन क्या आप जानते है कि सांसारिक जिम्मेदारियों का मतलब क्या है।" "जी नहीं। आप ही बताइये।" उन्होंने कहा "सांसारिक जिम्मेदारियों के मायने है - अपने माता पिता और अपनी अर्धांगिनी की जायज़ जरूरतों को ताउम्र पूरा करना, अपने बच्चों की वाजिब जरूरतों का ध्यान सिर्फ पच्चीस साल तक ही रखना। मैंने कहा "लेकिन पच्चीस साल ही क्यों?" उन्होंने पूछा "पच्चीस साल में परिपक्वता आ जाती है, तालीम मुक़म्मल हो जाती है, बच्चे कमाने लायक हो जाते है। शास्त्रों के मुताबिक पच्चीस से पचास वर्ष तक गृहस्थ आश्रम ...